“अरे! कोई नहीं.... मैं कह रहा हूं ना”
“मैं कह रहा हूं...”
“मैं...”
कल रात से ही फोन पर बेटू की कही....इन लाइनों और उससे ज्यादा, इसे कहने के अंदाज पर दिमाग अटक सा गया था। समझ नहीं आ रहा था कि इसमें खुशी तलाशूं या नियति के अपने नये सफर पर चलने के लिए अपने मन को तैयार करूं...!
अपनी मां के शहर में 25 साल बाद इनके ट्रांसफर होने की खुशी तो उसी समय काफूर हो गयी थी, जब पति महोदय ने फरमान सुनाते हुए कहा था कि अपने भाई और बहन को इशारा कर दो कि हमारे घर ना ही आयें तो बेहतर है और तुम भी ये रोज-रोज मायके जाने का चक्कर ना पालना।
ये नाराजगी भी पांच साल पहले की थी, जब मेरी ननद की मृत्यु हुई थी और बच्चों की बोर्ड परीक्षाओं के चलते मेरे घर से मेरे भाई-बहनों में से कोई भी मातम-पुरसी के लिए समय पर नहीं पहुंच पाया था, बाद में भाई पहुंचे थे।
उसी काफूर हुई खुशी के दौरान ही तो बेटू का फोन आया था और दो बातें करके ही उसे अहसास हो गया था कि मेरी आवाज में बात करने की वो खुशी ही नहीं है, जो हाल ही में कमाऊ बने अपने पूत से बात करते हुए अक्सर उसे महसूस हो जाती थी।
“तुम्हारी आवाज इतनी उदास उदास क्यों है, मां”
क्या कहती, नयी नौकरी में उसे दुखी भी नहीं करना चाहती थी और उससे छिपा भी नहीं पायी।
“कुछ नहीं, अब तो भई नये नये रिस्ट्रिक्शन लग रहे हैं कि मैं अपने भाई-बहन को भी अपने घर बुला नहीं सकती”
मैंने मूड को थोड़ा लाइट करते हुए मजाकिया अंदाज में ये कहा ही था कि पीछे से ये बरस पड़े।
“अरे क्या फालतू बातें कर रही हो, उसकी नौकरी अभी कनफर्म भी नहीं और तुम उसे जबर्दस्ती का टेंशन दे रही हो”
इनकी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि मोबाइल से बेटू की तेज आवाज गूंज उठी..
“मां, तुम्हें जिसे बुलाना हो, घर पर बुलाओ.... “अरे! कोई नहीं.... मैं कह रहा हूं ना”.....मैं
इसे सुनते ही इनके चेहरा का रंग तो बुझ ही गया था, लेकिन कहीं कुछ खटक मेरे मन में भी गया....
“मैं कह रहा हूं...”
“मैं...”
“मैं कह रहा हूं...”
“मैं...”
रुक-रुक दिमाग इसी वाक्य और उसके लहजे की परतों में अटक सा गया था.....
समझ नहीं आ रहा था कि ये पति की कुछ बंदिशें टूटने का आगाज़ है....या बेटू के अधीन होने का उद्घोष....
क्या पता इस जनम की शायद यही नियति हो.....
समझ नहीं आ रहा था कि ये पति की कुछ बंदिशें टूटने का आगाज़ है....या बेटू के अधीन होने का उद्घोष....
क्या पता इस जनम की शायद यही नियति हो.....
- विभास अवस्थी