Wednesday, August 5, 2015

नियति – एक लघु कथा


“अरे! कोई नहीं.... मैं कह रहा हूं ना”
“मैं कह रहा हूं...”
“मैं...”
कल रात से ही फोन पर बेटू की कही....इन लाइनों और उससे ज्यादा, इसे कहने के अंदाज पर दिमाग अटक सा गया था। समझ नहीं आ रहा था कि इसमें खुशी तलाशूं या नियति के अपने नये सफर पर चलने के लिए अपने मन को तैयार करूं...!
अपनी मां के शहर में 25 साल बाद इनके ट्रांसफर होने की खुशी तो उसी समय काफूर हो गयी थी, जब पति महोदय ने फरमान सुनाते हुए कहा था कि अपने भाई और बहन को इशारा कर दो कि हमारे घर ना ही आयें तो बेहतर है और तुम भी ये रोज-रोज मायके जाने का चक्कर ना पालना।
ये नाराजगी भी पांच साल पहले की थी, जब मेरी ननद की मृत्यु हुई थी और बच्चों की बोर्ड परीक्षाओं के चलते मेरे घर से मेरे भाई-बहनों में से कोई भी मातम-पुरसी के लिए समय पर नहीं पहुंच पाया था, बाद में भाई पहुंचे थे।
उसी काफूर हुई खुशी के दौरान ही तो बेटू का फोन आया था और दो बातें करके ही उसे अहसास हो गया था कि मेरी आवाज में बात करने की वो खुशी ही नहीं है, जो हाल ही में कमाऊ बने अपने पूत से बात करते हुए अक्सर उसे महसूस हो जाती थी।
“तुम्हारी आवाज इतनी उदास उदास क्यों है, मां”
क्या कहती, नयी नौकरी में उसे दुखी भी नहीं करना चाहती थी और उससे छिपा भी नहीं पायी।
“कुछ नहीं, अब तो भई नये नये रिस्ट्रिक्शन लग रहे हैं कि मैं अपने भाई-बहन को भी अपने घर बुला नहीं सकती”
मैंने मूड को थोड़ा लाइट करते हुए मजाकिया अंदाज में ये कहा ही था कि पीछे से ये बरस पड़े।
“अरे क्या फालतू बातें कर रही हो, उसकी नौकरी अभी कनफर्म भी नहीं और तुम उसे जबर्दस्ती का टेंशन दे रही हो”
इनकी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि मोबाइल से बेटू की तेज आवाज गूंज उठी..
“मां, तुम्हें जिसे बुलाना हो, घर पर बुलाओ.... “अरे! कोई नहीं.... मैं कह रहा हूं ना”.....मैं
इसे सुनते ही इनके चेहरा का रंग तो बुझ ही गया था, लेकिन कहीं कुछ खटक मेरे मन में भी गया....
“मैं कह रहा हूं...”
“मैं...”
रुक-रुक दिमाग इसी वाक्य और उसके लहजे की परतों में अटक सा गया था.....
समझ नहीं आ रहा था कि ये पति की कुछ बंदिशें टूटने का आगाज़ है....या बेटू के अधीन होने का उद्घोष....
क्या पता इस जनम की शायद यही नियति हो.....
- विभास अवस्थी

Monday, July 27, 2015

बंधन.! - एक लघु कथा

शादी की पच्चीसवीं सालगिरह पर जब बनारस ट्रांसफर होने की खुशखबरी सुनी, तो मैं बहुत खुश हुई। शादी के पांच साल बाद जब पापा रिटायर हुए थे तो उससे पहले ही उन्होंने घर बनवा लिया था। साथ पढ़ी और खेली हुई कुछ सहेलियों की भी शादी बनारस ही हुई थी। शादी जितना ही वक्त हो गया होगा, उन लोगों से मिले हुए भी। दो साल पहले बैंगलोर की एक सॉफ्टवेयर फर्म में बेटू की नौकरी लग जाने के बाद तो रोजाना का नियम सा बन गया था, मां-पापा की यादों में रहना। वैसे तो दिल्ली से बनारस अक्सर आना जाना होता रहता था, घर में छोटी बहन और भाई की शादी में भी मायके तो गयी ही थी, लेकिन मां की गोदी में सर रखकर सोने का मौका नहीं मिलता था और ना ही पापा को चिढ़ाने का कभी मौका मिला। और देवर भी बनारस ही रहते थे और इनकी भी इच्छा यही रहती थी कि देवर के यहां ही रुको। ससुराल और मायका एक ही शहर में हो जाए.... तो उसके बहुत से नुकसान भी होते हैं....लेकिन ये केवल महसूस ही किया जा सकता है...
ट्रांसफर के बाद से ही ये खुशी थी कि अब बिना किसी समारोह या उत्सव के भी मां-पापा से मिलने का, बतियाने का समय मिलेगा। और इनका भी मन था कि शिक्षा विभाग की नौकरी के बाकी बचे पांच साल यही बिताऊं और यहीं से रिटायरमेंट लें।
बहुत याद आयी थी मां की, जब बेटू तीन महीने का था और बिस्तर पर लेटे लेटे मुस्कुराते हुए हाथ-पैर हिला रहा था और मैं उसका खिलौना उठाने पीछे तक गयी थी, तो उसने सिर घुमा कर अपनी नजरों से मेरे जाने तक का पीछा किया था। क्या मैने भी ऐसा किया होगा..... और क्या सोंची होगी मां.. ये जानना चाहती थी..
बहुत याद आयी थी पापा की, जब बेटू दो तीन कदम चल कर लड़खड़ाया था और इन्होंने बेटू को संभाल लिया था। क्या पापा ने भी ऐसा किया होगा.....जानना चाहती थी मैं
बहुत याद आयी थी मां की, जब बेटू को टायफाइड हुआ था और 105 बुखार में उसके सर पर पट्टी रखते वक्त वो मां-मां बड़बड़ा रहा था... क्या मैने भी ऐसा किया होगा.....जानना चाहती थी मैं

लेकिन कभी मौका नहीं मिला.....आज अपनी इन सब यादों को फिर से जीने का मौका मिलने की खुशी थी।

ट्रांसफर के बाद चार्ज लेने जब ये आये तो जिद करके मैं भी आ गयी थी कि अकेली दिल्ली में क्या करूंगी। मकान एलॉट होने से पहले के 15-20 दिन रहे जरूर देवर के यहां थे....लेकिन इस बीच दो दिन मां के यहां रुकने का भी मौका मिला था। मां काफी कमजोर हो चुकी थीं, ऊपर से गठिया की वजह से ज्यादा हिलती डुलती भी नहीं थी। पापा के चेहरे पर भी अब चमक नहीं थीं, जब करवट लेते वक्त दर्द से मां के मुंह से कराह वाली आवाज सुनते तो.... कुछ देर उन्हें बिसूरते....फिर अखबार लेकर कमरे से बाहर निकल जाते। वर्किंग होने के बावजूद भैया-भाभी मां-पापा को पर्याप्त टाइम देते थे। पिछले सात-आठ सालों से दोनों लोग एक साथ कहीं निकले कि कम से कम एक जने तो घर में मां-पापा के साथ रहे।
दिल्ली से सामान आने और घर को सेट करने में महीना भर लग गया था। एक दिन ये आफिस के लिए तैयार हो रहे थे,
तो मैंने कहा
मैं भी तैयार हो जाती हूं, मां की तबियत ठीक नहीं है, आप मुझे कचहरी तक छोड़ देना, वहां से ऑटो मिल जाएगा।
ये
: कल भी तो गयीं थी अपने मायके.... अपने भैया से कह दो कि कोई नर्सिंग अटेंडेंट देख लें...बहुत एड आते हैं इनके फेसबुक पर... ये रोज-रोज का चक्कर मुझे पसंद नहीं......
मैं
: ......................

Tuesday, July 21, 2015

मैं असहमत हूं....!

- संस्कृति और परंपरा की बात करो तो सवर्णवादी या रूढ़िवादी
ना करो तो.... रीढ़विहीन राष्ट्रविरोधी या पाश्चात्य से प्रभावित
- धर्म की बात करो तो संकीर्ण व सांप्रदायिक
ना करो तो.... अधर्मी, अज्ञानी, अनपढ़ या अपनी जड़ों से कटा हुआ
- जीवन मूल्यों की बात करो तो पुरानतपंथी और नये जमाने के साथ सामंजस्य बिठाने मे असमर्थ
ना करो तो.... अनैतिक, अराजक और असामाजिक तत्व की संज्ञा
- शिक्षा और चरित्र निर्माण की बात करो तो अप्रासंगिक कहलाओ
ना करो तो... पितृत्व कार्य में भी नाकारा
- व्यवस्था में सुधार की बात करो तो अव्यावहारिक या अपना काम ना निकाल पाने में असमर्थ
ना करो तो... ये ठप्पा कि आप जैसे लोगों की वजह से पूरे समाज का ये हाल है...
जीवन यापन का मौजूदा दौर बड़ा घातक है...
भौतिक सुख सुविधाओं की प्रचुरता और वैविध्यता लेकिन मानसिक और बौद्धिक विकास की दिशा में विकल्पहीनता...
चेतन तत्व का लगातार क्षरण करती जा रही...संवेदनहीनता और असहिष्णुता..... असहमत होने का भी अधिकार छीनती जा रही है और असहमति को वैमनस्यता घोषित करती जा रही है.....
लेकिन असहमति वैमनस्यता है..
इससे असहमत हूं
मैं........

Monday, July 13, 2015

दिल्ली में बारिश

दिल्ली में इस मानूसन में केवल अभी 2-3 दिन ही पानी बरसा है.....और इस बारिश के पानी ने ही वो हाल कर दिया कि हम बारिश को ही कोसने लगे....जुमले बन गये कि
“तुमसे अपील तो थी, प्रेमिका की तरह बरसने की,
लेकिन ए मानसून, तुम बीबी की तरह टूट पड़े”
ऐसा लगता है कि जैसे हम दो-तीन दिन में ही उकता गये हों...
बचपन में हफ्तों तक बारिश की झड़ी नहीं टूटती थी, कभी झींसी, कभी फुहार और कभी झमाझम मूसलाधार... मूसलाधार बारिश तो मानो अब बस किताबी मुहावरा बन कर रह गयी है.....
आखिर क्या हो गया है... हमें जो बारिश पूरे मानसून बरस कर धरती की प्यास बुझाती है, खेतों में फसलों को लहलहाने में मदद करती है.. नदियों में नवजीवन भरती है....
उसी बारिश को लेकर हम “शहरी लोग” 3-4 दिनों में ही त्राहिमाम-त्राहिमाम करने लगते हैं, उस शहर में लगे पेड़ पौधों की भी हमें चिंता नहीं..जीव जंतुओं की भी चिंता नहीं.....अगर एक दिन हमारी गाड़ी सड़क पर निकल ना पाये या फंस जाये...तो हम चिल्लाने लगते हैं कि....
...बस कर मेघा बस कर..
किसका दोष है...... बारिश का... !
ये तो सदियों से होती आ रही है... और होती रहेगी....
फिर बेचारा बारिश का पानी जाए तो जाए कहां.... ड्रेनेज सिस्टम से तो रोजाना का काम ही नहीं संभलता... तो एक्स्ट्रा काम कैसे करे वो। बारिश के आने की सब राह तो देखते हैं.. लेकिन दो-चार दिन में कहने लगते हैं कि जाओ-जाओ...
बरसो तो आफत... ना बरसो तो कोसे जाओ..
लेकिन ये दोष बारिश का नहीं है .... ये दोष है हमारे शहरी नियोजन का... शहरों का विकास किस प्रकार हो... बारिश के पानी की क्या व्यवस्था हो... कैसे हो...
कहने को नियम बने हैं, कायदे बने हैं... कानून भी हैं..
लेकिन नीति नियंताओं के निहित स्वार्थों की टेंट में सब दम तोड़ देते हैं..
पहले के समय में शहरों में झील, तालाब, पोखर, ताल, तलैया होते थे.. संसाधनों के धनी कुछ लोग बावड़ी और कुएं भी बनवाते थे...झमाझम और मूसलाधार बारिश को भी मजा आता था... बरसने में...
आखिर उसे बहने का रास्ता और ठिकाना मिल जाता था...
लेकिन “माफिया बिल्डर” और “निहित स्वार्थों वाले नीति नियंता” ये ठिकाना खाते जा रहे हैं।
रोजगार के केंद्र के रूप में विकसित हो रहे बड़े शहरों में जल-भराव की कौन चिंता करे.....ये देखो बस कहां जमीन खाली है....
गड्ढा है .... तो उसे पाट दो... मकान बना दो
गड्ढा है .... तो उसे पाट दो.... सड़क बना दो
बारिश के दिनों में जो गड्ढे ... पानी से भरकर ताल तलैया और तालाब हो जाते थे.... वो अब इंसानों के आवासों से भरे हैं...
एक एनजीओ ने 2000 में दिल्ली के कुल 794 तालाबों का सर्वे किया था। इसके मुताबिक, ज्यादातर तालाबों पर अवैध कब्जा हो चुका था और जो तालाब थे भी, उनकी हालत खराब थी। इस बारे में एनजीओ वालों ने हाई कोर्ट में जनहित याचिका दायर की, जिसकी सुनवाई में तीन बार में दिल्ली सरकार ने 629 तालाबों की जानकारी दी, 2013 में दिल्ली के बाढ़ एवं सिंचाई विभाग ने जो जानकारी अदालत को दी है...
..करीब 150 तालाब तो केवल कागजों पर ही हैं..
..185 तालाबों की खुदाई की गयी..
..139 खुदाई के काबिल ही नहीं रह गये थे...
..43 गंदे पानी वाले होकर रह गयें हैं..
..89 तालाबों के विकास के लिए उन्हें दूसरे विभागों को सौंप दिया गया..
केवल
20 तालाब पहले से ही ठीक-ठाक स्थिति में थे..
ये हाल है जब बारिश के पानी के इकट्ठा होने की जगहों का ..... फिर बारिश को कोसने से क्या होगा...
फिर इन जगहों तक बारिश का पानी पहुंचाने वाले चैनलों या नालियों का... क्या हाल है....
जब दिल्ली वाले बगल वाले खाली प्लाट को भी कूड़ा घर समझते हैं...... तो सड़क और पानी के बहाव के लिए उसके किनारे बनी नालियां तो उनके बाप की ही हुईं ना...
तो दिल्ली वालों...... जलभराव आपकी नियति है..
बारिश के पानी को जितना तुम्हें कोसना है कोसो...
वो अपना रास्ता खोज लेगा और जगह भी..

Friday, July 10, 2015

असमंजस - एक कहानी


बेटे-बेटियों और नाती-पोतियों के बीच आज पिछहत्तरवां जन्मदिन मनाते हुए मन कुछ अजीब सा था...और ऊहापोह में था....पिछले दो दिनों से... टूटे सपनों से भरी दो उम्मीद की आंखे पीछा नहीं छोड़ रही ....... बार-बार मन में वो दो आंखे...एक अक्स का आकार ले रही थीं...
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यूनिवर्सिटी के दिनों की वो प्यारी सी लड़की.....
....जिसके साथ जिंदगी के सफर का सपना देखा था,
....जिसका केवल साथ होने पर हिमालय जैसी ऊंचाई वाले संकटों का भी सामना करने का हौसला आ जाता था
....लेकिन जीवन प्रवाह में जिसके साथ-साथ बहने की अनुमति... इसलिए नहीं मिल पायी थी कि क्योंकि अथक प्रयासों के बावजूद ... रिश्तेदारों और परिचितों के बीच सगर्व बताने लायक...आजीविका नहीं हासिल कर पाया था.. 
....जिसका अस्तित्व बहुत साल पहले इलाहाबाद की सड़कों और गलियों में छूट गया था
....जिसका चेहरा बेटे-बेटी होने के बाद धुंधला और पोते पोतियां होने तक विलुप्त हो चुका था....
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अचानक दो दिन पहले मय झुर्रियों के राजीव चौक मेट्रो स्टेशन पर सामने सजीव हो उठा था...
मैं तो शायद पहचान भी नहीं पाता..
लेकिन परिचय की पहल करने के बाद उसने कहा : टीवी पर आते रहते हो, इसलिए तुम्हें तो मैं पहचानती थी ही..और तुम्हें भूल भी कभी नहीं पायी.......वैसे बहुत ज्यादा नहीं बदले हो तुम... केवल बाल ही सफेद हुए हैं तुम्हारे.....मणि!
(ये मणि नाम उसी ने दिया था मुझे इस उम्मीद के साथ कि उसके अस्तित्व में एक मणि की तरह जड़ा जाऊंगा)
इधर उधर की बातें होने के बाद होने के बाद पता चला कि एक राजपत्रित अधिकारी के साथ उसकी शादी हो गयी थी, घर में हर तरह का पैसा बहकर आ रहा था, साथ में शराब और शबाब भी....शुरू में उसके विरोध के कुछ स्वर निकले थे, जिन्हें उसके अपने परिवार की नीची हैसियत का हवाला देकर दबा दिया जाता..
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बेटे बेटी होने के बाद... उसने अपनी जिंदगी को बच्चों के साथ ही गूंथ दिया था..... कालचक्र ने लीवर की बीमारी में पच्चीस साल पहले पति को छीन लिया...लड़के ने बालिग होने के बाद कुछ संपत्ति बेच-बाच कर कुछ कारोबार करने की कोशिश की...लेकिन संगत अच्छी ना होने की वजह से सबमें घाटा हुआ... और एक दिन मोटर-बाइक दुर्घटना में उसका भी देहांत हो गया..
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लड़की की शादी दिल्ली में हो गयी.. दामाद इंजीनियर था.. पिछले दस साल से अमेरिका में है...
ये सब जानने के बाद मैंने पूछा: तुम दिल्ली में क्या कर रही हो? 
वो: कुछ नहीं
मैं: मतलब नहीं समझा
वो: बेटे की मौत के कुछ दिनों बाद ही, तरह-तरह के रिश्तेदार आने लगे, तरह-तरह के सुझाव देने लगे, ...चाची ये कर लो, ..... बुआ ऐसा कर लो। तो उनसे छुटकारा पाने के लिए पति की बनाई सारी जमीन-जायदाद बेच दी, यहां दिल्ली में ही द्वारका में दो फ्लैट ले लिये, एक को किराये पर चढ़ा दिया है, फैमिली पेंशन और किराये से जरूरतें पूरी हो जाती हैं..
मैं: तो ये तो तुम इलाहाबाद में भी कर सकती थी
वो: बिटिया साल-दो साल में एक बार इंडिया आती है, दिल्ली में रहने पर कुछ दिन के लिए वो मेरे पास भी रहने को आ जाती है...इलाहाबाद में ही रहती तो इतना भी नहीं मिल पाती
(गहरी सांस लेते हुए) 
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................अकेलापन बहुत काटता है, मणि!
मैं: लेकिन बाकी समय क्या करती हो
मेरी आंखों में आंखें डालकर, कुछ शरारती और शोख अंदाज़ में बोली वो: 
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.....इंतज़ार!
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(अपने ही मन में मैं: 
इंतजार किसका...........मौत का या मेरा..........
मौत का इंतजार तो ना चाहते हुए भी... हर झुर्रियां करने लगती हैं
अगर अगर मेरा इंतजार कर रही हो, 
.....तो उस बुढ़िया का मैं क्या करूं, 
.....जो पिछले पैंतालीस साल से केवल मेरे चेहरे को ही पढ़ती रही है, 
.....और आज वो मेरी आंखों की पलक झपकने का भी मतलब जान लेती है
.....मेरी नजरों का सही मतलब बताने पर मुझसे ही शर्त लगा कर मुझे ही हरा देती है
....जो मेरी आदत बन चुकी है
...और 
मुझे अब जिससे प्यार है)
.
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- विभास

Wednesday, May 13, 2015

घर - एक लघु कथा


ज्योति! थोड़ी चीनी पीस कर रख लो, छेने में तुम जो चीनी डालती हो, उसे हम ठीक से चबा नहीं पाते हैं। चीनी का चूरा डालोगी तो अच्छा लगेगा

अम्मा की आवाज सुन, मेरे मुहं से निकला ठीक है अम्मा! आज हो जाएगा, मैं पीस दूंगा
पिछले कई दिनों से ज्योति मुझसे कह रह थी कि सिल कुटवा दो, बिल्कुल चिकनी हो गयी है, ठीक से पिसाता नहीं है। मुझे लगा कि बात मेरे पर आ जाएगी, इसलिए आज समय निकाल कर खुद ही चीनी पीसने की ठान ली। नहाने के बाद किचन में जाकर सिल उठाई और ज्योति से पूछा
  “बट्टा कहां रखा है

पास में ही सोफे पर बैठी अम्मा अचानक से बोल उठी
तुम्हारे यहां इसे बट्टा बोलते हैं, हमारे यहां इसे सिलौटी कहते हैं
मैने पूछा – हमारे तुम्हारे मतलब
अम्मा – अरे मतलब, मेरे अपने घर में
,  तुम्हारे नाना के घर में।
नाती-पोतों का भी ब्याह देख चुकी अम्मा का मैं चेहरा देख रहा था, अपने मायके की यादें उनकी आंखों की चमक में ताजा हो रही थीं।
मैने मुस्कराते हुए कहा – अम्मा, हम सब भी तो आपही से हैं। इतनी उम्र हो गयी लेकिन ये हमारे-तुम्हारे अभी तक नहीं गया।
घर तो हमारा वही था, और मरते वक्त तक वही रहेगा
झुर्रियों के बीच चमकती हुई दो आंखों में अचानक से एक नन्हीं नटखट सी लड़की की चमक आ गयी थी।

Wednesday, May 6, 2015

बावरा!


ये शब्द सुनते ही, मन-मस्तिष्क में कोई अर्थ या शब्दार्थ या भावार्थ नहीं
बल्कि एक जीवन जीने के एक अलमस्त तरीके की छवि दौड़ जाती है,
और
क्या मजेदार बात है कि इस छवि को,
हम कोई और शब्द नहीं दे पाते...
लेकिन ये शब्द-मात्र आनंद देता है...

आनंद....

वो आनंद जिसे शब्द देना संभव नहीं है...
आनंद को आनंद के अलावा
कोई दूसरा शब्द समझा भी नहीं सकता.
और
मैं आप सबसे भी नहीं चाहता
कि
इस पचड़े में पडें..
आनंद लें....
बावरे शब्दों का..
बावरी धुनों का..